महान व्यक्तित्व >> चन्द्रगुप्त मौर्य चन्द्रगुप्त मौर्यएम. आई. राजस्वी
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भारतीय इतिहास को नई दिशा देने वाला एक महान शासक...
प्रस्तुत हैं पु्स्तक के कुछ अंश
जिसने भारत के छोटे-छोटे राज्यों को एक सूत्र में बांधकर शक्तिशाली राज्य
की नींव डाली ऐसे महान शासक की जीवनगाथा।
चन्द्रगुप्त मौर्य
चंद्रगुप्त मौर्य के पिता सूर्यगुप्त मौर्य पिप्पलि वन के गणमुख्य थे और
उनकी माता का नाम मुरादेवी था। सूर्यगुप्त मौर्य सुखपूर्वक पिप्पलि वन पर
राज्य किया करते थे। उनके राज्य में चारों ओर सुख-शान्ति छाई हुई थी। कहीं
भी किसी प्रकार की कलह, घृणा और द्वेष की बात न उठती थी। लोगों का जीवन
पूर्ण अनुशासित और मर्यादित था।
पिप्पलि वन के लोगों की मुख्य आजीविका खेती और शिकार पर निर्भर थी। साधारण वेष-भूषा वाले ये लोग ऊंचे कद के बलिष्ठ और शक्तिशाली थे। अपने राजा के सम्मान में प्राण अर्पण करना वे अपने लिए बड़े गौरव और सम्मान की बात मानते थे। अपनी प्रसन्नता और हर्ष को वे सभी लोग संयुक्त होकर ‘उत्सव’ के रूप में मनाते थे।
सूर्यगुप्त के शासन में पिप्पलि वन में चारों ओर प्रसन्नता की मधुर बयार बह रही थी, किंतु प्रसन्नता की बहती हुई यह मधुर बयार मगध के सम्राट महापद्म नंद को तनिक भी न सुहाती थी। महापद्म नंद अपने आस-पास के छोटे-छोटे सभी राज्यों को जीतकर अपने साम्राज्य में मिलाते जा रहे थे। नंद के साम्राज्यवाद की कोप-दृष्टि पिप्पलि वन पर भी पड़ चुकी थी।
एक दिन जब सूर्यगुप्त अपने सभी सभासदों के साथ शिकार खेलने गए हुए थे, तभी मगध के सैनिकों ने पिप्पलि वन पर हमला कर दिया। पिप्पलि वन के छोटे-से महल को मगध के सैनिकों ने चारों ओर से घेर लिया। रानी मुरादेवी भौचक्की-सी मगध-सैनिकों की इस कार्यवाही को देखती रह गईं।
अश्वरोहियों के नायक ने उच्च स्वर में गर्जन करते हुए कहा, ‘‘पिप्पलि वन के रक्षित, संस्थान और संचारण के सभी संतरी सावधान ! कोई भी संतरी हमारी क्रिया-कलाप में बाधा उत्पन्न करने का प्रयास न करे, अन्यथा उसका मस्तक धड़ से अलग होकर धूल में लोटता दिखाई देगा।’’
इस उद्घोषणा के पश्चात वहां पर गम्भीर सन्नाटा व्याप्त हो गया। केवल घोड़ों की हिनहिनाहट और टापों का स्वर ही वातावरण को थर्रा रहा था। कुछ समयांतराल के बाद नायक का स्वर फिर गूंजा, ‘‘मगध के महाराजाधिराज महापद्म नंद की आज्ञा है कि अब पिप्पलि वन में किसी गणमुख्य का शासन नहीं होगा, बल्कि अब यह सीधे शासन-व्यवस्था द्वारा संचालित किया जाएगा।’’
महल में नियुक्त सभी संतरियों और रानी मुरादेवी ने भी अश्वारोहियों के नायक की इस घोषणा को सुना। सभी किंकर्तव्यविमूढ़—से अपने-अपने स्थान पर जड़ होकर रह गए। तभी बाहर से संस्थान का प्रधान संतरी बलभद्र दौड़ता हुआ मुरादेवी के पास आया और व्याकुल स्वर में बोला, ‘‘महारानी की जय हो ! शत्रु सैनिकों ने महल को चारों ओर से घेर लिया है।’’
‘‘हम यह सब होते हुए अपनी आंखों से देख रहे हैं बलभद्र !’’ मुरादेवी गंभीरता से बोलीं, ‘‘किंतु हम यह नहीं समझ सकी हैं कि मगध की सेना ने एकाएक हमारे राज्य पर आक्रमण क्यों किया है...क्या मगध राज्य का शत्रु हमारे राज्य में प्रवेश पा गया है ? या हमारे राज्य के सैनिकों ने कोई शत्रुतापूर्ण कार्यवाही की है ?’’
‘‘ऐसा कुछ भी नहीं है महारानी !’’ बलभद्र आवेश-भरे स्वर में बोला, ‘‘यह सब मगध के साम्राज्यवाद की प्यास का परिणाम है। नंद की सत्ता-लोलुप दृष्टि में पिप्पलि वन कांटे की तरह चुभ रहा था। इस कांटे को उखाड़ फेंकने के लिए ही मगध सेना ने हमारे राज्य पर आक्रमण किया है।’’
‘‘आक्रमण से पूर्व मगधराज ने न कोई दूत भेजा और न ही कोई शांति-संधि परिचर्चा ही की।’’ मुरादेवी आश्चर्यपूर्ण व्याकुलता से बोलीं, ‘‘यह तो मगधराज ने पूर्णतया अनुचित और परंपरा-मर्यादा के सर्वथा विपरीत कार्य किया है बलभद्र !’’
‘‘महारानी ! मगधराज ने उचित-अनुचित और परंपरा मर्यादा का तो बहुत पहले ही परित्याग कर दिया था।’’ बलभद्र तीव्र आवेश से बोला, ‘‘अब हमें शत्रु सेना की नीति-अवनीति पर विचार करने की अपेक्षा यह सोचना चाहिए कि इस विषम परिस्थिति में क्या किया जाए।’’
‘‘बलभद्र !’’ मुरादेवी विचलति होते हुए बोलीं, ‘‘इस समय महाराज आखेट के लिए गए हुए हैं। उनके साथ ही राज्य के प्रमुख सभासद भी गए हुए हैं। उनकी अनुपस्थिति में युद्ध की अग्नि में अपने सैनिकों को झोंकने का आदेश मैं किस प्रकार दूं बलभद्र ?’’
‘‘महारानी ! यदि आप आदेश न देंगी तो शत्रु-सैनिकों की तलवारें हमारे सैनिकों के शीश काट जाएंगी और हमारे सैनिक बिना किसी प्रतिरोध के मरते-कटते जाएंगे। आप हमें शत्रुओं से लोहा लेने की आज्ञा दें तो हम शत्रुओं को महाराज सूर्यगुप्त की शक्ति और पिप्पलि वन की स्वतंत्रता का बोध करा देंगे।’’
‘‘वीर बलभद्र ! तुम्हारी और तुम्हारे संतरियों की मौर्य-कुल के प्रति अगाध निष्ठा अतुलनीय है मगर बिना किसी सार्थक परिणाम के अपने योद्धाओं को मृत्यु की अग्नि में झोंकना कहां तक उचित है ?’’
‘‘महारानी ! वीर योद्धा कभी भी सार्थक-निरर्थक परिणाम की चिंता नहीं करते। वे केवल अपने स्वामी के आदेश का पालन करते हैं और स्वामी के आदेश पर वे शत्रु के प्राण लेने या अपने प्राण देने में तनिक भी संकोच नहीं करते। कृपया ! आप अधिक सोच-विचार न करें। हमें शत्रु से लोहा लेने की आज्ञा दीजिए।’’
‘‘यही सही बलभद्र !’’ मुरादेवी मगध सेना के अश्वरोहियों की बढ़ती हुई गतिविधियों को देखती हुए बोलीं, ‘‘शत्रुओं को अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार दंड देने के लिए तुम पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो।’’
‘‘जो आज्ञा महारानी !’’ कहकर बलभद्र ने मुरादेवी के सामने शीश झुकाया और फिर तेजी से वहां से चला गया।
बलभद्र अपने मुट्ठी-भर संतरियों और वीर सैनिकों को साथ ले, मगध अश्वरोहियों पर टूट पड़ा। मगध सेना बाढ़ के समान बढ़ी चली आती थी। बलभद्र और उसके साथी एक मगध सैनिक का मस्तक विच्छिन्न करते तो चार सैनिक और आगे बढ़कर एक सैनिक का स्थान ले लेते।
अपनी पराजय को सामने देख बलभद्र ने एक वीर और विश्वासपात्र संतरी को जंगल से महाराज सूर्यगुप्त की खोज में भेजा, ताकि उन्हें मगध सेना के आक्रमण की सूचना दी जा सके।
युद्धवीर सिंह नाम का वह संतरी शत्रु सैनिकों से लोहा लेते हुए और उनका घेरा तोड़ते हुए तेजी से जंगल की ओर निकल गया। उसका पूरा शरीर तीरों और तलवारों के घावों से भरा हुआ था और घावों से रक्त बह रहा था। युद्धवीर सिंह घाव से उठने वाली टीस और बहते हुए रक्त की परवाह न करते हुए सरपट जंगल की ओर अपना घोड़ा दौड़ाए जा रहा था। जंगल के बीचोबीच जाकर उसने क्षण-भर के लिए अपने घोड़े की रास खींच ली। हिनहिनाकर घोड़ा अपने स्थान पर रुक गया।
अब युद्धवीर सिंह ने कान लगाकर आस-पास की आहट ली तो उसे अपने दाईं ओर से कुछ अश्वरोहियों के घोड़ों की टापों का शोर सुनाई दिया। उसने तुरंत अपना घोड़ा दाईं ओर मोड़ दिया। थोड़ा-सा आगे चलकर उसने देखा कि महाराज सूर्यगुप्त शिकारी वेश में अपने घोड़े पर शान से बैठे हुए इधर ही चले आ रहे हैं। उनके दाएं हाथ में अपने घोड़े की रास और बाएं हाथ में जंगल के राजा सिंह का धड़ से अलग किया हुआ सिर लटक रहा था। अन्य सभासद उनके दाएं-बाएं और पीछे समान चाल से चले आ रहे हैं।
इस शिकारी समूह को देखते ही युद्धवीर सिंह ने अपने घोड़े की गति तेज कर दी और निकट आते हुए बोला, ‘‘महाराज की जय हो !’’
सूर्यगुप्त और सभी सभासद युद्धवीर सिंह को इस प्रकार क्षत-विक्षत अवस्था में देखकर हैरान रह गए।
‘‘युद्धवीर सिंह ! तुम्हारी यह अवस्था....।’’ उसे रक्त रंजित देख सूर्यगुप्त उसके चेहरे का निरीक्षण करते हुए बोले, ‘‘क्या किसी शत्रु ने तुम्हारे ऊपर आक्रमण करने का दुस्साहस किया है ?’’
‘‘महाराज ! आक्रमण मुझ पर नहीं, हमारे राज्य पर किया गया है।’’
‘‘किसने....किसने युद्धवीर ?’’
‘‘मगध सेना ने महाराज !’’
‘‘ओह !’’ सूर्यगुप्त रोष से बोले, ‘‘महापद्म नंद की साम्राज्यवादी पिपासा निरंतर रक्तपात को बढ़ावा देती जा रही है। शक्ति के मद में चूर नंद नीति-अनीति को बिसरा चुका है।’’
‘‘हां महाराज ?’’ एक सभासद बोला, ‘‘महापद्म नंद की नीति-अनीति का वैशाली का शक्तिशाली वज्जिसंघ और शाक्य, भाग, मल्ल, बुली और कोलिय जैसे गणराज्य भी शिकार हो चुके हैं और अब पिप्पलि वन पर भी उसकी अनैतिक कुदृष्टि पड़ चुकी है।’’
‘‘कुछ भी हो सौरव ! हम बिना युद्ध के पराजय स्वीकर नहीं करेंगे।’’ सूर्यगुप्त दृढ़ता से बोले, ‘‘हम विशुद्ध आर्य-नीति का ही अनुसरण करेंगे। यद्यपि हमारी पराजय अवश्यंभावी है, तथापि हम शत्रु सेना से भरपूर संघर्ष करेंगे।’’
‘‘महाराज ! अब अधिक विलंब न करें।’’ युद्धवीर सिंह तीव्र आवेश से बोला, ‘‘महारानी के प्राण संकट में हैं, पहले उनकी रक्षा कीजिए।’’
स्वीकारात्मक ढंग से गरदन हिलाते हुए सूर्यगुप्त ने अपने हाथ में थमे सिंह के मस्तक को एक ओर उछाल दिया और घोड़े को एड़ लगा दी। घोड़ा तीव्रतम वेग से दौड़ पड़ा, साथ ही पीछे-पीछे उनके सभासदों के घोड़े भी उसी वेग से दौड़ने लगे।
सूर्यगुप्त ने देखा कि मगध सेना टिड्डी-दल के समान बढ़ी चली आ रही थी। फिर भी उन्होंने अपने मुट्ठी-भर सैनिकों के साथ शत्रुओं पर तीव्र वेग से आक्रमण किया। सूर्यगुप्त के तीव्र वेग के प्रहार को शत्रु सैनिक रोक न सके और घबराकर पीछे हटने लगे, किंतु पीछे बढ़ी चली आ रही सेना का तीव्रतम दबाव था। पीछे से उमड़ते आते सैनिकों ने अग्रपंक्ति के पीछे हटते सैनिकों को पीछे न हटने दिया। इस दबाव में सैनिक बात-की-बात में ही सूर्यगुप्त और उसके चंद सैनिकों की खूनी तलवार का शिकार हो गए।
सूर्यगुप्त और उनकी छोटी-सी सेना के शौर्यपूर्ण संघर्ष को देखते हुए ऐसा लगता था कि विजयश्री उनका ही वरण करेगी, किंतु मगध सेना लगातार बढ़ती-उमड़ती ही जाती थी। एक सैनिक के मरने के साथ ही चार और सैनिक उसका स्थान लेने को तत्पर लग रहे थे। इस प्रकार सूर्यगुप्त और उनके मुट्ठी-भर सैनिक मगध सैनिकों को मारते-मारते बेदम होने लगे। तीसरे प्रहर तक चले इस युद्ध के परिणामस्वरूप अंततः पिप्पलि वन के अधिकतर सैनिक युद्ध में काम आ गए और शेष सैनिकों को मगध सेना ने बंदी बना लिया।
पिप्पलि वन के गणमुख्य सूर्यगुप्त भी मगध सेना द्वारा बंदी बना लिए गए। उनकी आंखों के सामने ही पिप्पलि वन पर मगध की विजय पताका फहरा दी गई, किंतु पिंजरे में कैद सिंह के समान सूर्यगुप्त कुछ न कर सके। वे केवल रक्तिम दृष्टि से इस दृश्य को देखते रहे।
मगधराज महापद्म नंद के आदेश से सूर्यगुप्त को बंदीगृह के अंधकूप में डालने के लिए ले जाया जाने लगा। इससे पूर्व सूर्यगुप्त की उनकी पत्नी मुरादेवी से अंतिम भेंट कराई गई।
मुरादेवी, जो कभी पिप्पलि वन गणराज्य की राजमहिषी थी, उसे मगधराज महापद्म नंद के अंतःपुर की दासी बना दी गई थी। उसे सूर्यगुप्त से अंतिम भेंट के लिए लाया गया।
मुरादेवी के मुखमंडल पर आज भी अन्तःपुर के दासत्व का एक भी चिह्न न उभरता दिखाई देता था। हां, वहां केवल अपार शांति और तेजस्विता अवश्य विद्यमान थी।
सूर्यगुप्त को हथकड़ी-बेड़ियों में जकड़ा हुआ देखकर मुरादेवी विचलित हो उठी। अपने चेहरे के बनते-बिगड़ते भावों को किसी प्रकार नियंत्रित करते हुए वह अधीरता से सूर्यगुप्त की ओर दौड़ पड़ी, किंतु सूर्यगुप्त की आंखों में गहन गंभीरता और दृढ़ निश्चय के ठहराव को देखकर वह अपने ही स्थान पर जड़ होकर रह गई।
‘‘आगे बढ़ते कदम क्यों रोक लिए महारानी ?’’ सूर्यगुप्त हाथ आगे बढ़ाते हुए बोले।
‘‘स्वामी !’’ थके कदमों से सूर्यगुप्त की ओर जाते हुए मुरादेवी बोली, ‘‘अब मैं महारानी नहीं, बल्कि नंद के अन्तःपुर की एक मामूली दासी हूं।’’
‘‘भाग्य की विडंबनाएं शारीरिक अवस्था को तो परिवर्तित कर देती हैं महारानी ! किंतु प्राणी की प्रकृति को कदापि नहीं।’’ सूर्यगुप्त तनिक ठहरकर बोले, ‘‘सिंह भले ही कितना भी भूखा क्यों न हो, फिर भी वह घास कभी नहीं खाता। क्यों ? इसलिए कि वह जंगल का राजा है। उनका नाम सिंह से बदलकर भले ही खरगोश, लोमड़ी, चूहा अथवा कुछ भी रख दिया जाए, वह फिर भी अपनी राजसी प्रकृति का परित्याग नहीं करेगा।’’
‘‘आपका कथन सर्वथा उचित है महाराज !’’ मुरादेवी विचलित स्वर में बोलीं, ‘‘किंतु महाराज मैं अपने मन को कैसे समझाऊँ ? कैसे मैं स्वयं को धीर बंधाऊं ?’’
‘‘भाग्य की विडंम्बना को साहस के साथ सहन करना पड़ता ही है महारानी !’’ सूर्यगुप्त मुरादेवी को प्यार से समझाते हुए बोले, ‘‘भाग्य से लड़ना निरर्थक है, किंतु विपरीत-विषम परिस्थितियों में भी संयम बनाए रखकर अनुकूल परिस्थितियों की प्रतीक्षा करनी चाहिए और साथ-साथ प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाते हुए संघर्ष भी करना चाहिए।’’
मुरादेवी ने अपना मस्तक हथकड़ी-बेड़ियों में जकड़े हुए सूर्यगुप्त के सीने पर रख दिया और सिसकियां भरते हुए बोली, ‘‘स्वामी ! काल की इन बेड़ियों को काटने के लिए मैं क्या संघर्ष करूँ ?’’
‘‘सर्वप्रथम तो धैर्य धारण करो और इस बात का विश्वास रखो कि हर पहेली अपने अंदर अपना ‘हल’ छुपाए हुए होती है...हर विपरीत और प्रतिकूल परिस्थिति में भी अनुकूलन का रहस्य छुपा हुआ है...घोर काली अमावस्या के तुरंत बाद चंद्रमा प्रस्फुटित होता है।’’
‘‘कैसे ? कैसे धैर्य धारण करूँ स्वामी ?’’ मुरादेवी बिलख उठी, ‘‘मेरा सुहाग...मेरा सौभाग्य को अंधकूप की अंधेरी वादियों में खोने जा रहा है। मैं किसे देखकर, किसे अपना जानकर धैर्य धारण करूं ? स्वामी ! आप तो अंधकूप की विडंम्बना बनने जा रहे हैं, किंतु मैं यहां स्वयं एक अंधकूप बन रही हूं।’’
‘‘महारानी ! मैं स्वयं तुमसे दूर जाने को विवश हूं, किंतु तुम्हारे पास अपनी एक अमूल्य निधि छोड़कर जा रहा हूं, जिसे आज की घड़ी में कोई भी तुमसे अलग नहीं कर पाएगा। मगधराज महापद्म नंद भी नहीं।’’
‘‘आप ऐसी किस निधि की बात कर रहे हैं स्वामी ?’’ मुरादेवी कुछ उलझन-भरे स्वर में बोली।
सूर्यगुप्त ने मुरादेवी के अपेक्षाकृत कुछ उभरे हुए गर्भ की ओर संकेत किया और धीरे से बोले, ‘‘मुरे ! तुम्हारे गर्भ के एक कोने में हमारी अमूल्य निधि पनप रही है, जो हमारे अंधकूप के अंधियारे को सदा-सर्वदा के लिए समाप्त कर देगी।’’
‘‘स्वामी !’’ किसी अनजानी-सी आशंका से वशीभूत होकर मुरादेवी ने कसकर सूर्यगुप्त का हाथ पकड़ लिया।
‘‘महारानी ! किसी भी प्रकार की निर्मूल आशंका मत करो। निश्चय ही काली अंधियारी अमावस के बाद चंद्रोदय होगा।’’
‘‘स्वामी ! आपकी इस बात ने तो मेरे मन में जीने की लालसा उत्पन्न कर दी है।’’ मुरादेवी क्षणिक आवेश से बोली, ‘‘अपने जीवन में होने वाले चंद्रोदय की प्रतीक्षा करते-करते मैं एक जन्म तो क्या सैकड़ों जन्म भी गुजार सकती हूं...संसार-भर की यातनाएं और पीड़ाएं सहन कर सकती हूं।’’
‘‘मुरे !’’ सूर्यगुप्त गंभीर स्वर में बोले, ‘‘परमपिता परमात्मा की कृपा से हमारे जीवन में चंद्रोदय तो अवश्य होगा, किंतु एक बात विशेष ध्यान रखना होगा....।’’
‘‘किस बात का स्वामी ?’’
‘‘हमारा चंद्र किसी का दास न कहलाए। उसे दास्य जीवन जीने के लिए विवश न होना पड़े, अन्यथा चंद्रोदय होते ही उसे दासत्व का ग्रहण ग्रस जाएगा।’’
‘‘किंतु स्वामी ! उसका पालन-पोषण तो दास्य परिवेश में ही होगा।’’
‘‘परिवेश तो गौण है महारानी !’’ सूर्यगुप्त मुरादेवी को समझाते हुए बोले, ‘‘गुणों-अवगुणों के वास्तविक वाहक संस्कार होते हैं। तुम उसे दास्य संस्कारों से दूर रखना और उसकी शिक्षा-दीक्षा के समुचित प्रबंध का प्रयास करना।’’
‘‘महाराज ! मैंने आज तक आपकी प्रत्येक आज्ञा का पूरा-पूरा पालन किया है, किंतु यदि परिस्थितिवश मैं आपकी इस आज्ञा का पालन न कर सकी तो मुझे क्षमा करना।’’
‘‘नहीं मुरे ! इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना कि यदि तुम ऐसा न कर सकीं तो हमारे जीवन में होने वाला चंद्रोदय निष्फल हो जाएगा।’’
‘‘ठीक है स्वामी ! मैं अपने प्राणों पर खेलकर भी आपकी अमूल्य निधि को संस्कारवान बनाऊंगी।’’ मुरादेवी दृढ़ता से बोली।
‘‘हां, तभी तो सूर्यगुप्त मौर्य का पुत्र-रत्न चंद्र एक राजपुत्र कहलाएगा...मौर्यकुल का चंद्र...पिप्पलि वन के गणमुख्य सूर्यगुप्त मौर्य का पुत्र-रत्न चंद्रगुप्त मौर्य कहलाएगा।’’
मगध राज्य के बहुत-से संतरी और अन्य सैन्य अधिकारी वहीं खड़े मुरादेवी और सूर्यगुप्त के बीच होने वाले वार्तालाप को सुन रहे थे। उनके होंठों पर हास्य और आंखों में व्यंग्य के भाव स्पष्ट दिखाई परिलक्षित हो रहे थे। जब भेंट का समय पूरा हो गया तो उन्होंने बलात् मुरादेवी को सूर्यगुप्त से अलग किया और उन्हें लेकर वहां से चल पड़े।
मुरादेवी अपने मन में संयम और आंखों में नीर लिए अपने स्वामी को विलग हो दूर जाते एकटक देखती रही। यद्यपि उनकी आंखें बरस रही थीं, तथापि उनमें एक विचित्र-सा धैर्य-भाव भरा हुआ था। संभवतः यही भाव उनके जीवन का संबल था।
पिप्पलि वन के लोगों की मुख्य आजीविका खेती और शिकार पर निर्भर थी। साधारण वेष-भूषा वाले ये लोग ऊंचे कद के बलिष्ठ और शक्तिशाली थे। अपने राजा के सम्मान में प्राण अर्पण करना वे अपने लिए बड़े गौरव और सम्मान की बात मानते थे। अपनी प्रसन्नता और हर्ष को वे सभी लोग संयुक्त होकर ‘उत्सव’ के रूप में मनाते थे।
सूर्यगुप्त के शासन में पिप्पलि वन में चारों ओर प्रसन्नता की मधुर बयार बह रही थी, किंतु प्रसन्नता की बहती हुई यह मधुर बयार मगध के सम्राट महापद्म नंद को तनिक भी न सुहाती थी। महापद्म नंद अपने आस-पास के छोटे-छोटे सभी राज्यों को जीतकर अपने साम्राज्य में मिलाते जा रहे थे। नंद के साम्राज्यवाद की कोप-दृष्टि पिप्पलि वन पर भी पड़ चुकी थी।
एक दिन जब सूर्यगुप्त अपने सभी सभासदों के साथ शिकार खेलने गए हुए थे, तभी मगध के सैनिकों ने पिप्पलि वन पर हमला कर दिया। पिप्पलि वन के छोटे-से महल को मगध के सैनिकों ने चारों ओर से घेर लिया। रानी मुरादेवी भौचक्की-सी मगध-सैनिकों की इस कार्यवाही को देखती रह गईं।
अश्वरोहियों के नायक ने उच्च स्वर में गर्जन करते हुए कहा, ‘‘पिप्पलि वन के रक्षित, संस्थान और संचारण के सभी संतरी सावधान ! कोई भी संतरी हमारी क्रिया-कलाप में बाधा उत्पन्न करने का प्रयास न करे, अन्यथा उसका मस्तक धड़ से अलग होकर धूल में लोटता दिखाई देगा।’’
इस उद्घोषणा के पश्चात वहां पर गम्भीर सन्नाटा व्याप्त हो गया। केवल घोड़ों की हिनहिनाहट और टापों का स्वर ही वातावरण को थर्रा रहा था। कुछ समयांतराल के बाद नायक का स्वर फिर गूंजा, ‘‘मगध के महाराजाधिराज महापद्म नंद की आज्ञा है कि अब पिप्पलि वन में किसी गणमुख्य का शासन नहीं होगा, बल्कि अब यह सीधे शासन-व्यवस्था द्वारा संचालित किया जाएगा।’’
महल में नियुक्त सभी संतरियों और रानी मुरादेवी ने भी अश्वारोहियों के नायक की इस घोषणा को सुना। सभी किंकर्तव्यविमूढ़—से अपने-अपने स्थान पर जड़ होकर रह गए। तभी बाहर से संस्थान का प्रधान संतरी बलभद्र दौड़ता हुआ मुरादेवी के पास आया और व्याकुल स्वर में बोला, ‘‘महारानी की जय हो ! शत्रु सैनिकों ने महल को चारों ओर से घेर लिया है।’’
‘‘हम यह सब होते हुए अपनी आंखों से देख रहे हैं बलभद्र !’’ मुरादेवी गंभीरता से बोलीं, ‘‘किंतु हम यह नहीं समझ सकी हैं कि मगध की सेना ने एकाएक हमारे राज्य पर आक्रमण क्यों किया है...क्या मगध राज्य का शत्रु हमारे राज्य में प्रवेश पा गया है ? या हमारे राज्य के सैनिकों ने कोई शत्रुतापूर्ण कार्यवाही की है ?’’
‘‘ऐसा कुछ भी नहीं है महारानी !’’ बलभद्र आवेश-भरे स्वर में बोला, ‘‘यह सब मगध के साम्राज्यवाद की प्यास का परिणाम है। नंद की सत्ता-लोलुप दृष्टि में पिप्पलि वन कांटे की तरह चुभ रहा था। इस कांटे को उखाड़ फेंकने के लिए ही मगध सेना ने हमारे राज्य पर आक्रमण किया है।’’
‘‘आक्रमण से पूर्व मगधराज ने न कोई दूत भेजा और न ही कोई शांति-संधि परिचर्चा ही की।’’ मुरादेवी आश्चर्यपूर्ण व्याकुलता से बोलीं, ‘‘यह तो मगधराज ने पूर्णतया अनुचित और परंपरा-मर्यादा के सर्वथा विपरीत कार्य किया है बलभद्र !’’
‘‘महारानी ! मगधराज ने उचित-अनुचित और परंपरा मर्यादा का तो बहुत पहले ही परित्याग कर दिया था।’’ बलभद्र तीव्र आवेश से बोला, ‘‘अब हमें शत्रु सेना की नीति-अवनीति पर विचार करने की अपेक्षा यह सोचना चाहिए कि इस विषम परिस्थिति में क्या किया जाए।’’
‘‘बलभद्र !’’ मुरादेवी विचलति होते हुए बोलीं, ‘‘इस समय महाराज आखेट के लिए गए हुए हैं। उनके साथ ही राज्य के प्रमुख सभासद भी गए हुए हैं। उनकी अनुपस्थिति में युद्ध की अग्नि में अपने सैनिकों को झोंकने का आदेश मैं किस प्रकार दूं बलभद्र ?’’
‘‘महारानी ! यदि आप आदेश न देंगी तो शत्रु-सैनिकों की तलवारें हमारे सैनिकों के शीश काट जाएंगी और हमारे सैनिक बिना किसी प्रतिरोध के मरते-कटते जाएंगे। आप हमें शत्रुओं से लोहा लेने की आज्ञा दें तो हम शत्रुओं को महाराज सूर्यगुप्त की शक्ति और पिप्पलि वन की स्वतंत्रता का बोध करा देंगे।’’
‘‘वीर बलभद्र ! तुम्हारी और तुम्हारे संतरियों की मौर्य-कुल के प्रति अगाध निष्ठा अतुलनीय है मगर बिना किसी सार्थक परिणाम के अपने योद्धाओं को मृत्यु की अग्नि में झोंकना कहां तक उचित है ?’’
‘‘महारानी ! वीर योद्धा कभी भी सार्थक-निरर्थक परिणाम की चिंता नहीं करते। वे केवल अपने स्वामी के आदेश का पालन करते हैं और स्वामी के आदेश पर वे शत्रु के प्राण लेने या अपने प्राण देने में तनिक भी संकोच नहीं करते। कृपया ! आप अधिक सोच-विचार न करें। हमें शत्रु से लोहा लेने की आज्ञा दीजिए।’’
‘‘यही सही बलभद्र !’’ मुरादेवी मगध सेना के अश्वरोहियों की बढ़ती हुई गतिविधियों को देखती हुए बोलीं, ‘‘शत्रुओं को अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार दंड देने के लिए तुम पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो।’’
‘‘जो आज्ञा महारानी !’’ कहकर बलभद्र ने मुरादेवी के सामने शीश झुकाया और फिर तेजी से वहां से चला गया।
बलभद्र अपने मुट्ठी-भर संतरियों और वीर सैनिकों को साथ ले, मगध अश्वरोहियों पर टूट पड़ा। मगध सेना बाढ़ के समान बढ़ी चली आती थी। बलभद्र और उसके साथी एक मगध सैनिक का मस्तक विच्छिन्न करते तो चार सैनिक और आगे बढ़कर एक सैनिक का स्थान ले लेते।
अपनी पराजय को सामने देख बलभद्र ने एक वीर और विश्वासपात्र संतरी को जंगल से महाराज सूर्यगुप्त की खोज में भेजा, ताकि उन्हें मगध सेना के आक्रमण की सूचना दी जा सके।
युद्धवीर सिंह नाम का वह संतरी शत्रु सैनिकों से लोहा लेते हुए और उनका घेरा तोड़ते हुए तेजी से जंगल की ओर निकल गया। उसका पूरा शरीर तीरों और तलवारों के घावों से भरा हुआ था और घावों से रक्त बह रहा था। युद्धवीर सिंह घाव से उठने वाली टीस और बहते हुए रक्त की परवाह न करते हुए सरपट जंगल की ओर अपना घोड़ा दौड़ाए जा रहा था। जंगल के बीचोबीच जाकर उसने क्षण-भर के लिए अपने घोड़े की रास खींच ली। हिनहिनाकर घोड़ा अपने स्थान पर रुक गया।
अब युद्धवीर सिंह ने कान लगाकर आस-पास की आहट ली तो उसे अपने दाईं ओर से कुछ अश्वरोहियों के घोड़ों की टापों का शोर सुनाई दिया। उसने तुरंत अपना घोड़ा दाईं ओर मोड़ दिया। थोड़ा-सा आगे चलकर उसने देखा कि महाराज सूर्यगुप्त शिकारी वेश में अपने घोड़े पर शान से बैठे हुए इधर ही चले आ रहे हैं। उनके दाएं हाथ में अपने घोड़े की रास और बाएं हाथ में जंगल के राजा सिंह का धड़ से अलग किया हुआ सिर लटक रहा था। अन्य सभासद उनके दाएं-बाएं और पीछे समान चाल से चले आ रहे हैं।
इस शिकारी समूह को देखते ही युद्धवीर सिंह ने अपने घोड़े की गति तेज कर दी और निकट आते हुए बोला, ‘‘महाराज की जय हो !’’
सूर्यगुप्त और सभी सभासद युद्धवीर सिंह को इस प्रकार क्षत-विक्षत अवस्था में देखकर हैरान रह गए।
‘‘युद्धवीर सिंह ! तुम्हारी यह अवस्था....।’’ उसे रक्त रंजित देख सूर्यगुप्त उसके चेहरे का निरीक्षण करते हुए बोले, ‘‘क्या किसी शत्रु ने तुम्हारे ऊपर आक्रमण करने का दुस्साहस किया है ?’’
‘‘महाराज ! आक्रमण मुझ पर नहीं, हमारे राज्य पर किया गया है।’’
‘‘किसने....किसने युद्धवीर ?’’
‘‘मगध सेना ने महाराज !’’
‘‘ओह !’’ सूर्यगुप्त रोष से बोले, ‘‘महापद्म नंद की साम्राज्यवादी पिपासा निरंतर रक्तपात को बढ़ावा देती जा रही है। शक्ति के मद में चूर नंद नीति-अनीति को बिसरा चुका है।’’
‘‘हां महाराज ?’’ एक सभासद बोला, ‘‘महापद्म नंद की नीति-अनीति का वैशाली का शक्तिशाली वज्जिसंघ और शाक्य, भाग, मल्ल, बुली और कोलिय जैसे गणराज्य भी शिकार हो चुके हैं और अब पिप्पलि वन पर भी उसकी अनैतिक कुदृष्टि पड़ चुकी है।’’
‘‘कुछ भी हो सौरव ! हम बिना युद्ध के पराजय स्वीकर नहीं करेंगे।’’ सूर्यगुप्त दृढ़ता से बोले, ‘‘हम विशुद्ध आर्य-नीति का ही अनुसरण करेंगे। यद्यपि हमारी पराजय अवश्यंभावी है, तथापि हम शत्रु सेना से भरपूर संघर्ष करेंगे।’’
‘‘महाराज ! अब अधिक विलंब न करें।’’ युद्धवीर सिंह तीव्र आवेश से बोला, ‘‘महारानी के प्राण संकट में हैं, पहले उनकी रक्षा कीजिए।’’
स्वीकारात्मक ढंग से गरदन हिलाते हुए सूर्यगुप्त ने अपने हाथ में थमे सिंह के मस्तक को एक ओर उछाल दिया और घोड़े को एड़ लगा दी। घोड़ा तीव्रतम वेग से दौड़ पड़ा, साथ ही पीछे-पीछे उनके सभासदों के घोड़े भी उसी वेग से दौड़ने लगे।
सूर्यगुप्त ने देखा कि मगध सेना टिड्डी-दल के समान बढ़ी चली आ रही थी। फिर भी उन्होंने अपने मुट्ठी-भर सैनिकों के साथ शत्रुओं पर तीव्र वेग से आक्रमण किया। सूर्यगुप्त के तीव्र वेग के प्रहार को शत्रु सैनिक रोक न सके और घबराकर पीछे हटने लगे, किंतु पीछे बढ़ी चली आ रही सेना का तीव्रतम दबाव था। पीछे से उमड़ते आते सैनिकों ने अग्रपंक्ति के पीछे हटते सैनिकों को पीछे न हटने दिया। इस दबाव में सैनिक बात-की-बात में ही सूर्यगुप्त और उसके चंद सैनिकों की खूनी तलवार का शिकार हो गए।
सूर्यगुप्त और उनकी छोटी-सी सेना के शौर्यपूर्ण संघर्ष को देखते हुए ऐसा लगता था कि विजयश्री उनका ही वरण करेगी, किंतु मगध सेना लगातार बढ़ती-उमड़ती ही जाती थी। एक सैनिक के मरने के साथ ही चार और सैनिक उसका स्थान लेने को तत्पर लग रहे थे। इस प्रकार सूर्यगुप्त और उनके मुट्ठी-भर सैनिक मगध सैनिकों को मारते-मारते बेदम होने लगे। तीसरे प्रहर तक चले इस युद्ध के परिणामस्वरूप अंततः पिप्पलि वन के अधिकतर सैनिक युद्ध में काम आ गए और शेष सैनिकों को मगध सेना ने बंदी बना लिया।
पिप्पलि वन के गणमुख्य सूर्यगुप्त भी मगध सेना द्वारा बंदी बना लिए गए। उनकी आंखों के सामने ही पिप्पलि वन पर मगध की विजय पताका फहरा दी गई, किंतु पिंजरे में कैद सिंह के समान सूर्यगुप्त कुछ न कर सके। वे केवल रक्तिम दृष्टि से इस दृश्य को देखते रहे।
मगधराज महापद्म नंद के आदेश से सूर्यगुप्त को बंदीगृह के अंधकूप में डालने के लिए ले जाया जाने लगा। इससे पूर्व सूर्यगुप्त की उनकी पत्नी मुरादेवी से अंतिम भेंट कराई गई।
मुरादेवी, जो कभी पिप्पलि वन गणराज्य की राजमहिषी थी, उसे मगधराज महापद्म नंद के अंतःपुर की दासी बना दी गई थी। उसे सूर्यगुप्त से अंतिम भेंट के लिए लाया गया।
मुरादेवी के मुखमंडल पर आज भी अन्तःपुर के दासत्व का एक भी चिह्न न उभरता दिखाई देता था। हां, वहां केवल अपार शांति और तेजस्विता अवश्य विद्यमान थी।
सूर्यगुप्त को हथकड़ी-बेड़ियों में जकड़ा हुआ देखकर मुरादेवी विचलित हो उठी। अपने चेहरे के बनते-बिगड़ते भावों को किसी प्रकार नियंत्रित करते हुए वह अधीरता से सूर्यगुप्त की ओर दौड़ पड़ी, किंतु सूर्यगुप्त की आंखों में गहन गंभीरता और दृढ़ निश्चय के ठहराव को देखकर वह अपने ही स्थान पर जड़ होकर रह गई।
‘‘आगे बढ़ते कदम क्यों रोक लिए महारानी ?’’ सूर्यगुप्त हाथ आगे बढ़ाते हुए बोले।
‘‘स्वामी !’’ थके कदमों से सूर्यगुप्त की ओर जाते हुए मुरादेवी बोली, ‘‘अब मैं महारानी नहीं, बल्कि नंद के अन्तःपुर की एक मामूली दासी हूं।’’
‘‘भाग्य की विडंबनाएं शारीरिक अवस्था को तो परिवर्तित कर देती हैं महारानी ! किंतु प्राणी की प्रकृति को कदापि नहीं।’’ सूर्यगुप्त तनिक ठहरकर बोले, ‘‘सिंह भले ही कितना भी भूखा क्यों न हो, फिर भी वह घास कभी नहीं खाता। क्यों ? इसलिए कि वह जंगल का राजा है। उनका नाम सिंह से बदलकर भले ही खरगोश, लोमड़ी, चूहा अथवा कुछ भी रख दिया जाए, वह फिर भी अपनी राजसी प्रकृति का परित्याग नहीं करेगा।’’
‘‘आपका कथन सर्वथा उचित है महाराज !’’ मुरादेवी विचलित स्वर में बोलीं, ‘‘किंतु महाराज मैं अपने मन को कैसे समझाऊँ ? कैसे मैं स्वयं को धीर बंधाऊं ?’’
‘‘भाग्य की विडंम्बना को साहस के साथ सहन करना पड़ता ही है महारानी !’’ सूर्यगुप्त मुरादेवी को प्यार से समझाते हुए बोले, ‘‘भाग्य से लड़ना निरर्थक है, किंतु विपरीत-विषम परिस्थितियों में भी संयम बनाए रखकर अनुकूल परिस्थितियों की प्रतीक्षा करनी चाहिए और साथ-साथ प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाते हुए संघर्ष भी करना चाहिए।’’
मुरादेवी ने अपना मस्तक हथकड़ी-बेड़ियों में जकड़े हुए सूर्यगुप्त के सीने पर रख दिया और सिसकियां भरते हुए बोली, ‘‘स्वामी ! काल की इन बेड़ियों को काटने के लिए मैं क्या संघर्ष करूँ ?’’
‘‘सर्वप्रथम तो धैर्य धारण करो और इस बात का विश्वास रखो कि हर पहेली अपने अंदर अपना ‘हल’ छुपाए हुए होती है...हर विपरीत और प्रतिकूल परिस्थिति में भी अनुकूलन का रहस्य छुपा हुआ है...घोर काली अमावस्या के तुरंत बाद चंद्रमा प्रस्फुटित होता है।’’
‘‘कैसे ? कैसे धैर्य धारण करूँ स्वामी ?’’ मुरादेवी बिलख उठी, ‘‘मेरा सुहाग...मेरा सौभाग्य को अंधकूप की अंधेरी वादियों में खोने जा रहा है। मैं किसे देखकर, किसे अपना जानकर धैर्य धारण करूं ? स्वामी ! आप तो अंधकूप की विडंम्बना बनने जा रहे हैं, किंतु मैं यहां स्वयं एक अंधकूप बन रही हूं।’’
‘‘महारानी ! मैं स्वयं तुमसे दूर जाने को विवश हूं, किंतु तुम्हारे पास अपनी एक अमूल्य निधि छोड़कर जा रहा हूं, जिसे आज की घड़ी में कोई भी तुमसे अलग नहीं कर पाएगा। मगधराज महापद्म नंद भी नहीं।’’
‘‘आप ऐसी किस निधि की बात कर रहे हैं स्वामी ?’’ मुरादेवी कुछ उलझन-भरे स्वर में बोली।
सूर्यगुप्त ने मुरादेवी के अपेक्षाकृत कुछ उभरे हुए गर्भ की ओर संकेत किया और धीरे से बोले, ‘‘मुरे ! तुम्हारे गर्भ के एक कोने में हमारी अमूल्य निधि पनप रही है, जो हमारे अंधकूप के अंधियारे को सदा-सर्वदा के लिए समाप्त कर देगी।’’
‘‘स्वामी !’’ किसी अनजानी-सी आशंका से वशीभूत होकर मुरादेवी ने कसकर सूर्यगुप्त का हाथ पकड़ लिया।
‘‘महारानी ! किसी भी प्रकार की निर्मूल आशंका मत करो। निश्चय ही काली अंधियारी अमावस के बाद चंद्रोदय होगा।’’
‘‘स्वामी ! आपकी इस बात ने तो मेरे मन में जीने की लालसा उत्पन्न कर दी है।’’ मुरादेवी क्षणिक आवेश से बोली, ‘‘अपने जीवन में होने वाले चंद्रोदय की प्रतीक्षा करते-करते मैं एक जन्म तो क्या सैकड़ों जन्म भी गुजार सकती हूं...संसार-भर की यातनाएं और पीड़ाएं सहन कर सकती हूं।’’
‘‘मुरे !’’ सूर्यगुप्त गंभीर स्वर में बोले, ‘‘परमपिता परमात्मा की कृपा से हमारे जीवन में चंद्रोदय तो अवश्य होगा, किंतु एक बात विशेष ध्यान रखना होगा....।’’
‘‘किस बात का स्वामी ?’’
‘‘हमारा चंद्र किसी का दास न कहलाए। उसे दास्य जीवन जीने के लिए विवश न होना पड़े, अन्यथा चंद्रोदय होते ही उसे दासत्व का ग्रहण ग्रस जाएगा।’’
‘‘किंतु स्वामी ! उसका पालन-पोषण तो दास्य परिवेश में ही होगा।’’
‘‘परिवेश तो गौण है महारानी !’’ सूर्यगुप्त मुरादेवी को समझाते हुए बोले, ‘‘गुणों-अवगुणों के वास्तविक वाहक संस्कार होते हैं। तुम उसे दास्य संस्कारों से दूर रखना और उसकी शिक्षा-दीक्षा के समुचित प्रबंध का प्रयास करना।’’
‘‘महाराज ! मैंने आज तक आपकी प्रत्येक आज्ञा का पूरा-पूरा पालन किया है, किंतु यदि परिस्थितिवश मैं आपकी इस आज्ञा का पालन न कर सकी तो मुझे क्षमा करना।’’
‘‘नहीं मुरे ! इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना कि यदि तुम ऐसा न कर सकीं तो हमारे जीवन में होने वाला चंद्रोदय निष्फल हो जाएगा।’’
‘‘ठीक है स्वामी ! मैं अपने प्राणों पर खेलकर भी आपकी अमूल्य निधि को संस्कारवान बनाऊंगी।’’ मुरादेवी दृढ़ता से बोली।
‘‘हां, तभी तो सूर्यगुप्त मौर्य का पुत्र-रत्न चंद्र एक राजपुत्र कहलाएगा...मौर्यकुल का चंद्र...पिप्पलि वन के गणमुख्य सूर्यगुप्त मौर्य का पुत्र-रत्न चंद्रगुप्त मौर्य कहलाएगा।’’
मगध राज्य के बहुत-से संतरी और अन्य सैन्य अधिकारी वहीं खड़े मुरादेवी और सूर्यगुप्त के बीच होने वाले वार्तालाप को सुन रहे थे। उनके होंठों पर हास्य और आंखों में व्यंग्य के भाव स्पष्ट दिखाई परिलक्षित हो रहे थे। जब भेंट का समय पूरा हो गया तो उन्होंने बलात् मुरादेवी को सूर्यगुप्त से अलग किया और उन्हें लेकर वहां से चल पड़े।
मुरादेवी अपने मन में संयम और आंखों में नीर लिए अपने स्वामी को विलग हो दूर जाते एकटक देखती रही। यद्यपि उनकी आंखें बरस रही थीं, तथापि उनमें एक विचित्र-सा धैर्य-भाव भरा हुआ था। संभवतः यही भाव उनके जीवन का संबल था।
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